मुश्किलें कुछ इस कदर बढी ---
कि मुस्कुराना भूल गए --------
रोज़ यूँ ही बैठे रहतें हैं ,
नसीब के कदमों के इंतज़ार में---
कहीं आना जाना भूल गए----
क्या दिन थे वो ,
जब हँसते- मुस्कुराते कटते थे दिन-रात ,
कब सुबह हुई, कब शाम ढली ,
खबर ही कहाँ होती थी ,
अब ये आलम है कि ,
घडी की सुइयों पे टकटकी लगाये बैठे हैं.
चित्रांगदा शरण
२० मई , २०१५
Chitrangada Sharan
20th May, 2015
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